अमरकंटक मध्य प्रदेश में स्थित एक अलौकिके एवम धार्मिक आस्था से परिपूर्ण पर्यटन स्थल है जहाँ पहाड़ों के बीच घने जंगलों के दरख़्तों से गिरे सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट रोमांचित करती है,जहाँ घने जंगलों मे साँय साँय करती हवा माहौल मे बिखरी पौराणिक कथायें हौले हौले आपके कानों मे फुसफुसाती हैं, घने जंगलों की ऊबड़ खाबड़ पगडंडियों के किनारे पर धूनी जमाये साधु जहाँ कबीर के भजन गाते सुनाई देते हैं, नर्मदा, सोन नदी नदी जोहिला नदियों के उद्गम से निकलने वाले पानी की कलकल ध्वनी के बीच जहाँ तहाँ मंदिर के घंटों की आध्यात्मिक संगीत के सुर सुनाई देते हैं.
आइये आपको ले चलते हैं हम एक ऐसे सफर पे जहा हर जगह रोमांच की एक अदभुत परिकल्पना का एहसास होता है ।
बिलासपुर स्टेशन से उतरके हमने गाड़ी वाले से बात की और कोटा रोड होते हुए आगे की ओर बढ़ चले अचानकमार जंगल की ओर
शाम के करीब 4 बजे के आसपास हमने वन्य क्षेत्र के अंदर प्रवेश किया तो अगल बगल की हरियाली और प्राकृतिक सौंदर्य को देख के मंत्र मुग्ध से हो गए । चिड़ियों के कलरवयुक्त गुंजन से मानो अंदर से ही एक संगीत की अनुभूति का एहसास पहली बार हुआ ।
आइये आपको ले चलते हैं हम एक ऐसे सफर पे जहा हर जगह रोमांच की एक अदभुत परिकल्पना का एहसास होता है ।
बिलासपुर स्टेशन से उतरके हमने गाड़ी वाले से बात की और कोटा रोड होते हुए आगे की ओर बढ़ चले अचानकमार जंगल की ओर
शाम के करीब 4 बजे के आसपास हमने वन्य क्षेत्र के अंदर प्रवेश किया तो अगल बगल की हरियाली और प्राकृतिक सौंदर्य को देख के मंत्र मुग्ध से हो गए । चिड़ियों के कलरवयुक्त गुंजन से मानो अंदर से ही एक संगीत की अनुभूति का एहसास पहली बार हुआ ।
अचानकमार अभ्यारण्य जैव विविधता एवं वन्य प्राणियां की प्रचुरता से पूर्ण है । यह अभ्यारण्य अपने आप में एक दर्शनीय स्थल है ।
अचानकमार वन्य जीवन अभयारण्य छत्तीसगढ़ राज्य में स्थित एक वन्य जीवन अभयारण्य है। अचानकमार वन्य जीवन अभयारण्य को 1975 में तैयार किया गया था। इस अभयारण्य में वैसे तो विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु पाए जाते हैं, किंतु यहाँ बाघों की संख्या सर्वाधिक है।
- अचानकमार वन्य जीवन अभयारण्य 557.55 वर्ग किलो मीटर के क्षेत्रफल में फैला है।
- बिलासपुर वन प्रभाग का उत्तर पश्चिमी वन विकास खण्ड, अचानकमार वन्य जीवन अभयारण्य भारत का एक समृद्ध अभयारण्य है।
- अचानकमार वन्य जीवन अभयारण्य में अनेक प्रकार के वन्य जंतु जैसे चीतल, जंगली भालू, तेंदुआ, बाघ, चीते, पट्टीदार हाइना, केनिस ओरियस भेडिया, स्लॉथ बीयर, मेलुरसस, अर्सीनस, भारतीय जंगली कुत्ते, कोऑन, अलपिन्स, चीतल, चार सींग वाले एंटीलॉप, नील गाय, बोसेलाफस, ट्रेगोकेमेलस, चिंकारा,
- ब्लैक बक, जंगली सूअर और अन्य अनेक पाए जाते हैं।
पूरे जंगल में साल, साजा, बीजा और बांस के पेड़ भारी संख्या में पाये जाते हैं। घोंगापानी जलाशय अभयारण्य के रास्ते पर स्थित एक बांध है। पर्यटकों को वहाँ रहने के लिए कोई विकल्प नहीं है। दिन में बांध का दृश्य मोहक लगता है। वन्यजीव अभयारण्य अचनकमार, कोएंजी और लमनी के आगे सरकारी अतिथि गृह भी है।
उसकी देख-रेख अच्छी तरह की जाती है और लमनी में फॉरेस्ट गेस्ट हाउस का निर्माण तो ब्रिटिश काल के दौरान किया गया था। बेलघना रेलवे स्टेशन निकटतम रेलवे स्टेशन है, लेकिन बिलासपुर ज्यादा सुलभ है। किराए की कार और बस के अलावा पर्यटक किसी अन्य वाहन से इस अभयारण्य तक पहुँच सकते हैं।
छत्तीसगढ़ में बाघों की तादाद अब लगभग दोगुनी हो गई है। वन्यजीवों की गिनती के ताजा आंकड़ों के अनुसार प्रदेश के जंगलों में 46 बाघ पाए गए हैं, जबकि 2010 से पहले यह संख्या 26 पर टिकी हुई थी। बाघों की गिनती के लिए प्रदेश में अचानकमार के साथ ही इंद्रावती और उदंती सीतानदी अभयारण्य को चुना गया था।
छत्तीसगढ़ में बाघों की स्थिति
2006 में 26 बाघ
2010 में 26 बाघ
2014 में 46 बाघ
ऐसे बढ़ा बाघों का कुनबा
कभी बाघों के लिए स्वर्ग रहे छत्तीसगढ़ के जंगल डेढ़ दशक में वनराज के लिए अच्छे नहीं रहे। वर्ष 2006 में प्रदेश में 26 बाघ पाए गए। इसके बाद 2010 में हुई गणना में बाघों का कुनबा नहीं बढ़ पाया। चार साल के अंतराल में होने वाली गणना में इस बार बाघों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई।
छत्तीसगढ़ में बाघों की स्थिति
2006 में 26 बाघ
2010 में 26 बाघ
2014 में 46 बाघ
ऐसे बढ़ा बाघों का कुनबा
कभी बाघों के लिए स्वर्ग रहे छत्तीसगढ़ के जंगल डेढ़ दशक में वनराज के लिए अच्छे नहीं रहे। वर्ष 2006 में प्रदेश में 26 बाघ पाए गए। इसके बाद 2010 में हुई गणना में बाघों का कुनबा नहीं बढ़ पाया। चार साल के अंतराल में होने वाली गणना में इस बार बाघों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई।
इस घने जंगल मे ऐसे तो सब ठीक ही चलता रहता है पर जब कुछ गलत होना होता है तो ऐसे होता हैं कि अच्छे भले व्यक्ति की बुद्धि काम न करे ।
ऐसा ही कुछ हमारे साथ भी हुआ ।
अंधेरा होने को था और गाड़ी का टायर पंक्चर हो गया और मज़े की बात ये की एक्सट्रा टायर भी नही था हमारे पास तो ड्राइवर वहाँ से 5 किलोमीटर दूर केंवची में टायर बनवाने चला गया और हम एक अजीब सी आशंका के साथ वही रुके रहे ।
सुना है वन्य जीव आग से डरके पास नही आते तो हम उस वीरान जगह पे लकड़ियां एकत्र करके आग जलाने की तैयारी में लग गए । सबने आसपास की लकडियो को इकठ्ठा किया और मैं जलाने लगा ।
ठंड इतनी ज्यादा थी वहाँ कि जिसको आग के नजदीक जहा जगह मिली वही बैठ गया । मैं आपको बता नही सकता कि वो शाम हमारे लिए सदा के लिये अविस्मरणीय थी क्योंकि एक तरफ वीरान जंगल और जानवरों का डर अलग ।
इन परिस्थितियों में कहा नही जा सकता आपको कब क्या देखने को मिल जाये ।
3 घंटों के बाद ड्राइवर आया तो हमने चैन की सांस ली और हम फिर आगे बढ़ चले अमरकंटक की ओर जहां के कल्याण सेवा आश्रम में हमारा रुकने का इंतेज़ाम था।
सन १९७८ में अक्षय तृतीया के दिन बाबा कल्याण दास जी ने "कल्याण सेवा आश्रम" की नींव रखी. कल्याण सेवा आश्रम ट्रस्ट ने सन १९८१ से औपचारिक रूप से कार्य करना प्रारंभ किया. १५ मई सन १९८४- बैसाख पूर्णिमा के दिन "आचार्य पीठ" की स्थापना की गयी.महाराजा रीवा श्री मार्तंड सिंह जूदेव के मुख्य आतिथ्य में आश्रम में माँ नर्मदा की पावन प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की गयी. इस अवसर को समस्त भारत के संतो का सानिध्य एवं आशीर्वाद प्राप्त हुआ.
इस आश्रम की साफ सफाई और खासकर सेवा भावना हर तरफ प्रसिद्व है । कहते हैं कि आप अमरकंटक आये और यहाँ न आये तो आपकी यात्रा व्यर्थ है ।
सुबह सुबह नहा धोकर हमने आश्रम में स्थित मंदिर में दर्शन किये और आरती का भी आनंद उठाया। यह आश्रम अपने आप मे ही किसी पर्यटन स्थल से कम नही है ।
अब बारी थी सुबह की कड़कड़ाती ठंड में बाहर निकालके कुछ पेट पूजा की।
ये मुँह से भाँप जब तक न निकले मज़ा ही नही आता पहाड़ो पे जाने का । क्यूँ ? ठीक कहा न
कहते हैं डूबते को तिनके का सहारा तो यहाँ पे मैं कहना चाहूंगा कि कांपते को लकड़ी का सहारा । इसी आग को तापते हुए यहाँ का पारंपरिक पोहा जलेबी का नाश्ता मिला तो मानो जैसे जान में जान आयी ।
अब समय था इस आध्यत्म की नगरी के दर्शन का
माँ नर्मदा जी का मंदिर
नर्मदा नदी का उद्गम स्थल – नर्मदा नदी जिसे भारतीय सभ्यता मे गंगा नदी से भी उपर माना गया है । नर्मदा, जिसे माँ रेवा के नाम से भी जाना जाता है| और माँ क्यूँ कहा जाता है, ये बात गुजरात, मध्य प्रदेश, और छत्तीसगढ़ के बियाबान जंगलों के गर्मी से तपते हुए ‘आदिवासियों’ से बेहतर कोई नहीं जानता |
यही से नर्मदा नदी का उद्गम हुआ है जो कि आगे जाकर बड़ा ही विशाल रूप धारण कर लेती है ।
मंदिर में स्थित इस हाथी की प्रतिमा के बारे में कहते हैं कि जो व्यक्ति इसके निचे से पार हो जाता है उसने जीवन मे कभी कोई पाप नही किया है । अब असल बात क्या है ये हमने जानने की कोशिश नही की और बढ़ गए अपने अगले पड़ाव कपिलधारा की ओर
कपिलधारा जल प्रपात जिसे दूग्ध धारा भी कहते हैं वहाँ पहुचकर हमने इस अप्रतिम सौंदर्य का जी भर के मज़ा लिया ।
ईस मनोहारी दृश्य का वर्णन शब्दो मे कर पाना बहुत ही कठिन है । जो यहां आता है वही समझ पाता है इस अलौकिक अदभुत सौंदर्य को
यात्रा का अंतिम पड़ाव है जैन मंदिर जिसका निर्माण अभी ज़ारी है
यह मंदिर भारत के अद्वितीय मंदिरों में अपना स्थान रखता है। इस मंदिर को बनाने में सीमेंट और लोहे का इस्तेमाल नहीं किया गया है। मंदिर में स्थापित मूर्ति का वजन 24 टन के करीब है।
यहाँ से निकल के किसी ने हमें जालेश्वर महादेब मंदिर के बारे में बताया तो उत्सुकता वश हम लौटते हुए वहाँ के लिये चल पड़े
श्री ज्वालेश्वर महादेव मंदिर अमरकंटक से 8 किलोमीटर दूर शहडोल रोड पर स्थित है। यह खूबसूरत मंदिर भगवान शिव का समर्पित है। यहीं से अमरकंटक की तीसरी नदी जोहिला नदी की उत्पत्ति होती है। विन्ध्य वैभव के अनुसार भगवान शिव ने यहां स्वयं अपने हाथों से शिवलिंग स्थापित किया था और मैकाल की पहाडि़यों में असंख्य शिवलिंग के रूप में बिखर गए थे। पुराणों में इस स्थान को महा रूद्र मेरू कहा गया है। माना जाता है कि भगवान शिव अपनी पत्नी पार्वती से साथ इस रमणीय स्थान पर निवास करते थे।
अब यहाँ से हम सभी लौट चले थे अपने साथ कभी न भुलाई जा सकने वाली मीठी मीठी यादों के साथ । अमरकंटक की इन शांत हसीन और अलौकिक वादियों में हर कोई दोबारा आना जरूर चाहेगा ।
हर हर महादेव
जय नर्मदे मैया
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